लेकिन झूठ की उम्र
लम्बी नहीं होती याद रख लो !!
वोर्नविटा का प्रचार (दौड़ लगाते माँ और बेटे) मुझे अतीत में ले गया .....
याद आई बचपन की कहानी टुकड़ो-टुकड़ो में बिखरी ....
थोडी खलिश है थोडा सा है गम
तन्हाई का एहसास हुआ थोडा कम ....
बेटे को जीत दिलाने के लिए कितनी कोशिश करनी होती है एक माँ को ....
चाचा -बुआ का प्यारा दादा-दादी का दुलारा अपने पिता के आँखों का तारा .....
उस बच्चे के खेलने के संगी दादी -बुआ ....
माँ के कलेजे का टुकड़ा को जब सब ये समझाते होगें कि Step-Mother ....
इकलौता बच्चा सब समझते ,अभी उसका जीत जाना ही उचित समझते ....
कुछ वर्षों के बाद घर से बहुत दूर नौकरी पर जाना हुआ उस परिवार का ....
घर-परिवार से दूर जब हक़ीक़त से सामना हुआ तो वो बच्चा बिखरता नज़र आया ....
बहुत ही छोटा सा गाँव ....
एक ऑफिस एक ऑफिसर और उनके साथ काम करनेवाले कुछ स्टाफ ....
उनलोगों के रहने के लिए कुछ मकान .....
ऑफिसर का एक प्यारा सा बेटा ....
बेटा जब खेलने निकलता तो उसके साथ खेलने वाले होते स्टाफ के बच्चे जिन्हें चें सख़्त हिदायत थी कि साहब का बाबू है ,इसलिए उसे हराना नहीं है ...। मेमसाहब स्टाफ के बच्चों को बहुत सीखातीसिखाती कि खेल में सब बराबर होते हैं ,ईमानदारी से खेलो तुम जीतते हो तो उसे हराओ लेकिन मेमसाहब कि बातों का कोई असर नहीं होता ..। सब हँस कर रह जाते .....। उल्टा घर में मेमसाहब को ही डांट पड़ती ...।
कुछ वर्षों के बाद साहब नौकरी के कारण कई छोटे बड़े गाँव घूमते हुये एक बड़े शहर में आए ..। यहाँ साहब के बेटे के साथ खेलने वाले थे पड़ोसी के बच्चे ...। यहाँ साहब के बेटे को हारने का मौका मिलता ...। हारने के बाद वो काफी रोता चिल्लाता खेल बिगाड़ देता हिंसक हो जाता
उसे तो बहुत ही ज्यादा परेशानी हुई ....। दादी-पापा के प्यार में पला बच्चा हारना कहाँ सीखा था ...। दादी-पापा दूसरे बच्चों का ही दोष निकलते उन्हे ही समझाते कि मेरे बच्चे को ही जीतने दो ......। लेकिन वो गलत था न ?
तब उसकी माँ निर्णय की कि वो अपने उस बच्चे के साथ खेलेगी ..। लूडो-चेश-कैरमबोर्ड सब खेलती और उसे हराती ....। हारने के बाद हड़कंप मच जाता ...। बच्चा अलग चिल्लाता और घर के बाकी लोग अलग ...। उस माँ को Step-Mother पुकारा जाने लगा .....
माँ पर कोई असर नहीं होता .... रोज अपने को समझा लेती .....
ये नादाँ दिल सँभल जाओ
जरा सा भावुक हुआ
और अपने ही
दिमाग पर से
संतुलन गड़बड़ हुआ ....
लेकिन धीरे-धीरे तब बच्चा हारना सीखने लगा और उस बच्चे को खेल में मज़ा भी लेने लगा ,क्यूँ कि जीतने के लिए उसे प्रयास करना पड़ता और उत्सुकता बढ़ी रहती ....
प्यार के एक और पहलु से रूबरू होने का अहसास हुआ उसे .... और अपने माँ के करीब आने लगा .....
प्यार तो सबसे मिल ही रहा था ..... माँ से मिला अनुशासन ,संजीदगी,जिम्मेदारी,दुनियादारी और हारने के बाद जितने के लिए प्रयास करने का जज्बा !!
फिर तो माँ को कहना पडा .....
गुजर चुकी हूँ कब,क्यूँ ,कहाँ ,कैसे ,किसलिए की राहों से
नित नए अनजाने अनगिनत अनसुलझे अनंत सवालों से !!
14 comments:
bachpan hi wo kachchi mitti hoti hai jise jis sanche me chaho dhaal lo
जब इरादे मजबूत हों और मजबूती की छवि में माँ का चेहरा हो - तो वही होता है जो ख़ुदा चाहता है - आँखें भर आयीं .... संवेदना और ख़ुशी से
तब उसकी माँ निर्णय की कि वो अपने उस बच्चे के साथ खेलेगी ..
कोई कुछ भी कहे माँ का हर निर्णय सही होता है ...
बहुत खूब . माँ तो माँ होती हैं ममत्व से .उसको स्टेप माँ समज बनता हैं ........बच्चे हारकर ही जीत सीखते हैं ...... बहुत ही मर्मस्पर्शी संस्मरण
कुछ माँ ऐसी भी होती हैं जो अपनी अहम के चलते अपने ही खून के अरमानो का खून भी करने से पीछे नहीं हटती | ऐसा मंजर अपनी आँखों से वास्तविकता में देखा है मैंने और दिल कचोट कर रह जाता है वह इंसान जिसने माता और पिता दोनों का प्यार संतान को दिया अर्थात पिता | इसलिए यह कहना सही नहीं होगा के माँ का हर निर्णय सही होता है और बच्चे के हित में होता है | ये कलयुग है यहाँ कुछ भी संभव है |
हार से डरना नहीं और जीत पर ज़्यादा खुश होना नहीं। हमे तो यही सिखाया जाता रहा है।
वैसे भी हार जिंदगी को समझने का एक जरिया है इससे कैसा डरना।
सादर
हृदयस्पर्शी..... आम जीवन से जुड़ी सी गहरी अभिव्यक्ति..... ममत्व से बढ़कर क्या ?
हार और जीत जीवन के दो पहलू है,मजबूत इरादा रखने वालों को ही मंजिल और जीत मिलती है,,
उम्दा,बहुत प्रभावी प्रस्तुति !!!
recent post : भूल जाते है लोग,
हार ही जीतना सीखाती है..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
आज की ब्लॉग बुलेटिन दिल दा मामला है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
माँ बच्चों को जीवन में संघर्ष करना सिखाती है ... सुंदर प्रस्तुति
जो हर को स्वीकार कर सकता वह जीत भी सकता है ,उम्दा प्रस्तुति !
LATEST POSTसपना और तुम
यथार्थ से वंचित करना तो न्यायोचित कहा ही नहीं जा सकता,अतः सही निर्णय सदैव ही सराहा जाएगा चाहे माँ का हो या पिता का।
माँ= जो ममत्व दे।
माता=जो निर्माता हो।
सिर्फ 'जननी' होना ही 'माँ' या 'माता'होने का प्रमाणपत्र नहीं है।
हार ही जीतना सीखाती है..बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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